नरो हितहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वशक्तः। दाता सम: सत्यपर: क्षमावानाप्तोपसेवी च भवत्यरोग:।।’
नरो हिताहार-विहारसेवी, समीक्ष्यकारी, विषयेषु असक्तः। दाता, समः, सत्यपरः, क्षमावान्, आप्तोपसेवी, च भवति अरोगः।
अर्थात जो व्यक्ति सदैव हितकर आहार-विहार का सेवन करता है, सोच-समझकर कार्य करता है, विषयों में आसक्त नहीं होता, जो दानशील, समत्व बुद्धि से युक्त, सत्यपरायण, क्षमावान, वृद्धजनों की सेवा करने वाला है, वह निरोग होता है।
मतिर्वचः कर्म सुखानुबन्धं सत्त्वं विधेयं विशदा च बुद्धिः । ज्ञानं तपस्तत्परता च योगे यस्यास्ति तं नानुपतन्ति रोगाः ।।
सुख देने वाली मति, सुखकारक वचन और सुखकारक कर्म, अपने अधीन मन और शुद्ध पापरहित बुद्धि जिसके पास है और जो ज्ञान प्राप्त करने, तपस्या करने और योग सिद्ध करने में तत्पर रहता है, उसे शारीरिक और मानसिक कोई रोग नहीं होते अर्थात वह सदा स्वस्थ और दीर्घायु बना रहता है।