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ध्यान: बाहर से भीतर की यात्रा

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ध्यान: बाहर से भीतर की यात्रा

ध्यान  क्या है ?

जीवन की लय को, जीवन संगीत में बदल देना ध्यान है। यह कोई अतिरिक्त कार्य नहीं, बल्कि जीवन का नियमित कार्य है। इसी से जीवन सुगठित-सुव्यवस्थित एवं प्राकृतिक बनता है। ध्यान सर्वाधिक प्रभावोत्पादक मानसिक तथा तन्त्रिका टाॅनिक है। जिसके द्वारा प्रारम्भ से ही शान्ति और स्थिरता प्राप्त करने में सहायता मिलती है। ध्यान से चंचल इच्छाओं, मन में उठने वाले विचारों तथा संवेगों की प्रतिक्रियाओं से मुक्ति मिलती है। नित्य प्रति ध्यान करने से रक्त में कोलेस्ट्राल कम होता है तथा प्लाज्मा कार्टीसोल का स्तर भी कम होता है। यही दोनों मानसिक उद्विग्नता के लिए उत्तरदायी हैं। इसके अतिरिक्त अनेक जैव-रासायनिक परिवर्तन होते हैं, जो मन को शांत करने में सहायता करते हैं। जैसे-जैसे ध्यान में प्रगति होती है, मानसिक उपद्रवों और विघ्न बाधाओं का स्थान शान्ति और आनन्द का संवर्धनशील भाव लेता है। इससे मानसिक और संवेगात्मक वातावरण शुद्ध होता है। इस तरह ध्यान द्वारा समूचा मन स्वस्थ, सशक्त व संगठित होता है।

स्वयं के  प्रति  सजग  होना 

संसार के प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में कदम-कदम पर ध्यान का सहारा लेना पड़ता है। ध्यान मनुष्य का सहज स्वभाव है, जिसकी उत्पति जन्म के साथ ही होती है। सरल शब्दो में समझें तो ध्यान का मतलब है किसी विषय-वस्तु, कार्य पर गौर करना, उसे समझना। साधारण जीवन में हम पूरी सजगता से (पूरे होश में) किसी चीज को समझते हैं, वही आध्यात्मिक जगत् में हम अपने अंतर के रहस्य को समझते हैं। अतः ध्यान का अर्थ हुआ स्वयं के प्रति सजग होना, खुद को जानना ‘मैं कौन हूँ?’ स्वयं पर ध्यान देना। अक्सर हम बाह्य वस्तुओं एवं व्यक्तियों का ही चिन्तन-ध्यान करते हैं। वास्तविकता में ध्यान अन्र्तयात्रा है, बाहर से भीतर की यात्रा है। ध्यान अपने आप का अनुसंधान है या स्वयं का निष्पक्ष और सचेतन निरीक्षण है। पर पदार्थ से मुक्त होकर ‘स्व’ में डूबने की प्रक्रिया है। यह निरन्तर चलने वाली सजगता है।

तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम्

ध्यान: मन को एक बिन्दू पर स्थिर करना और उस स्थिति को बनाए रखना

ध्यान एक रचनात्मक, जीवन्त तथा सक्रिय प्रक्रिया है। मन को एक बिन्दू पर स्थिर करना, धारणा करना ‘मानसिक एकाग्रता’ है और उस स्थिति को बनाए रखना ध्यान है। योगदर्शन के अनुसार (किसी एक ध्येय स्थान में चित्त को बाँध देना, स्थिर कर देना अर्थात् लगा देना ‘धारणा’ है) “तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम्”-उस पूर्वोक्त ध्येय वस्तु में चित्तवृत्ति की एकानकता का नाम ध्यान है। अर्थात् चित्तवृत्ति का गंगा के प्रवाह की भाँति या तैलधारावत् अविच्छिन्नरुप से निरन्तर ध्येय वस्तु में ही अनवरत लगा रहना ‘ध्यान’ कहलाता है। ध्यान से विचार, क्रिया और मन तीनों का पूर्ण समन्वय और सामंजस्य होता है। ध्यान हमारे सम्पूर्ण शरीर में ऊर्जा का संचरण करता है। ध्यान द्वारा शरीर में उस अपूर्व ऊर्जा का प्रवाह होता है, जो मन का सारा मैल धो डालती है। ध्यान से अपरिष्कृत भावनाएं परिशुद्ध होती हैं। नियमित ध्यान करने से अन्तर्प्रज्ञा का उदय होता है तथा मन शांत और स्थिर हो जाता है। ध्यान उस दशा का नाम है, जब व्यक्ति शुभ-अशुभ दोनों ही विचारों से ऊपर उठकर शुद्धता को उपलब्ध होता है। पाप और पुण्य दोनों आनन्द भाव में विलीन हो जाते हैं।

ध्यान शुरू  करने से  पूर्व  जानें 

आज की भाग दौड़ भरी जिन्दगी में मन को एकाग्र कर पाना और ध्यान लगाना बहुत ही कठिन है। ध्यान की क्रिया शुरू करने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि ध्यान साधक के लिए उपयुक्त स्थान, काल और आसन कौन-सा उत्तम है एवं किस आसन से बैठकर कितने समय तक ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। इससे कुछ दिनों के अभ्यास से यह दैनिक क्रिया में शामिल हो जाता है फलतः ध्यान लगाना आसान हो जाता है।

स्थान

एकान्त, पवित्र हो, जहाँ यज्ञ, जप, स्वाध्याय, भगवच्चर्चा आदि होते हों, परन्तु ध्यान के समय जहाँ कोई न हो, एकान्त नदीतट, जो मनोरम और शुद्ध वायु से युक्त हो, गीला या नरम न हो, उबड़-खाबड़ न हो, जहाँ कँकड़ और बालू न हो, सुपुष्प और धूपादि से सुगंधित हो, जहाँ भगवान् के सुन्दर चित्र लगे हों। ऐसा निर्जन स्थान न मिले तो अपने घर में ही अलग स्वच्छ एकान्त-सा स्थान चुन लेना चाहिए।

काल

ध्यान के लिए सर्वोत्तम समय उषाकाल अथवा रात्रि का अन्तिम प्रहर है, उस समय स्वभाविक ही बुद्धि सात्त्विक और संस्कारशून्य-सी रहती है। परन्तु अन्य समय भी ध्यान किया जा सकता है। हाँ, भोजन के बाद तुरन्त ही ध्यान करने से प्रायः ध्यान नहीं होता।

बिछौना

आसन न अधिक ऊँचा हो और न अधिक नीचा हो, पहले कुशासन, उस पर शुद्ध वस्त्र अथवा ऊन का या केवल नरम कुशों का आसन भी बिछाया जा सकता है। ऐसे आसन पर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठना चाहिए।

आसन

स्वस्तिक और पद्मासन सबसे उत्तम हैं। इन आसनों में कष्ट भी नहीं है और चित्त भी जल्दी समाहित होता है। बार-बार आसन बदलना ठीक नहीं, एक ही आसन से निश्चल होकर बैठना चाहिए।

श्वसन

सांस लेने और छोड़ने की क्रिया द्वारा ध्यान को केन्द्रित करने में मदद मिलती है। ध्यान करते समय जब मन अस्थिर होकर भटक रहा हो उस समय श्वसन क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करने से धीरे धीरे मन स्थिर हो जाता है और ध्यान केन्द्रित होने लगता है। ध्यान करते समय गहरी सांस लेकर धीरे धीरे से सांस छोड़ने की क्रिया से काफी लाभ मिलता है।

समय

प्रतिदिन तीन घण्टे ध्यान किया जा सके तो बहुत उत्तम है, नहीं तो कम से कम एक घण्टे तो ध्यान का अभ्यास जरुर करना चाहिए। हो सके तो तीन बार तीन घण्टे कर लिया जाये-प्रातःकाल, सन्ध्याकाल और रात्रिकाल।

मनचाहा दृश्य

ध्यान करते समय अपनी अन्तर्दृष्टि से आप मंदिर, बगीचा, फूलों की क्यारियों एवं प्राकृतिक दृश्यों को भी देख सकते हैं। इससे ध्यान लगाना सुगम और आनन्दायक हो जाता है।

ध्यान कैसे करें 

  • ध्यान के समय हमेशा शरीर, मस्तक और गले को सीधा रखना चाहिए।
  • रीढ़ की हड्डी सीधी रहे। कुबड़ाकर न बैठें।
  • दोनों पैर एक दूसरे पर क्रास की तरह होना चाहिए।
  • आंखें मूंद कर नेत्र को दोनों भौहों के मध्य या नासिका के अग्रभाग या नाभिकेन्द्र में से किसी एक प्रदेश (ध्येय) में स्थापित करना चाहिए।
  • जब चित्त-वृत्ति सर्वथा ध्येय के आकार की न बनें, शरीर का बोध बना रहे और सांसारिक स्फुरणाएं मन में उठती रहें तब तक इष्टमन्त्र का जप करता रहे और बार-बार चित्त को ध्येय में लगाने की चेष्टा करता रहे।
  • लय (नींद), विक्षेप, कषाय, रसास्वाद, आलस्य, प्रमाद, दम्भ आदि दोषों से भी बचे रहने के लिए भी प्रयत्नशील रहे।

आवश्यक सुझाव

उपरोक्त  विधि नियमित ध्यान के लिए है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इस क्रिया में किसी प्रकार का तनाव नहीं हो और आपकी आंखें स्थिर और शांत हों। यह क्रिया आप भूमि पर आसन बिछाकर कर सकते हैं अथवा पीछे से सहारा देने वाली कुर्सी पर बैठकर भी कर सकते हैं। शुरू में 5 मिनट का ध्यान भी काफी होता है।

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