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आयुष्य मन्दिरम् एक गैर-लाभकारी (a not-profit) संस्थान है जिसका लक्ष्य एवं उद्देश्य भारतीय पारम्परिक चिकित्सा ज्ञान जैसे योग, प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद, एक्युप्रेशर आदि का विश्वभर में प्रचार-प्रसार करना तथा उपचार,अनुसंधान व प्रशिक्षण की सुविधाएं प्रदान करना है।
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आयु-आरोग्य-वृद्धिका प्रवेशद्वार

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आयु-आरोग्य-वृद्धिका प्रवेशद्वार

न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु: प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्।। (श्वेताश्वतर. 2/12)

यह योगमार्ग आयु-आरोग्य-वृद्धि का प्रवेश द्वार है और वेदांत मार्ग का गंतव्य स्थान है, जो लोगों को शाश्वत आरोग्य प्रदान करता है और रोग-दोष, जरा-मरण-जैसी आधियों-व्याधियों से सदा के लिए मुक्त करता है।

आचार्य चरक ने इस बात को विस्तार से बताते हुए कहा है-

नारो हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्त:। दाता सम: सत्यपर: क्षमावानप्तोपसेवि च भवत्यरोगः।

मतिर्वच: कर्म सुखानुबंधं सत्त्वं विधेयं विशदा च बुद्धि:। ज्ञानं तपस्तत्परता च योगे यस्यास्ति तं नानुपतन्ति रोग:।। (च. शा. 2.46-47)

अर्थात हितकारी आहार-विहार का सेवन करने वाला, विचारपूर्वक काम करने वाला, काम- क्रोधादि विषयों में आसक्त न रहने वाला, सत्य बोलने में तत्पर, सहनशील और आप्त पुरुषों की सेवा करने वाले मनुष्य रोग (रोग रहित) रहता है। सुख देने वाली मति, सुखकारक वचन एवं कर्म, अपने अधीन मन और शुद्ध तथा पापरहित बुद्धि जिनके पास है और जो ज्ञान प्राप्त करने, तपस्या करें तथा योग सिद्ध करने में तत्पर रहते हैं, उन्हें शरीरिक अथवा मानसिक कोई भी रोग नहीं होता।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी इसी भाव का निर्देश किया है-

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।। (श्रीमद्भगवद्गीता 6.17)

तो फिर योग कैसे सिद्ध होता है, श्रीकृष्ण कहते हैं-‘जो व्यक्ति युक्त आहार और विहार करने वाला है, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाला है तथा परिमित शयन और जागरण करता है, ऐसे योगी का ‘योग’ उसके समस्त दुःखों का नाश कर देता है। सब दुःखों को हरने वाले का नाम दुःखहा है।’ ऐसा सब संसाररूप दुःखों का नाश (समस्त बंधनों से मुक्त करने वाला) करने वाला योग ( उस योगीका ) सिद्ध होता है यह अभिप्राय है।

yuktāhāravihārasya yuktacēṣṭasya karmasu| yuktasvapnāvabōdhasya yōgō bhavati duḥkhahā৷৷ (Srimad Bhagavad Gita 6.17)

Meaning in English

That yoga which destroys all sorrows (removes all bondages) is successfully practised by the one who is temperate in eating, moderate in movements and recreation, temperate in exertion and temperate in sleep and wakefulness.

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